चौदह साल हो गए, बाबा ने एक कहानी सुनाई थी-
एक बार की बात कहता हूं तारा बाबू। मैं एक भद्र पुरूष के यहां अतिथि था। वहॉं मैं देखता क्या कि जिस कमरे में मैं ठहरा था उसके किवाड़ के पास खडा होकर एक बच्चा मुझे एकटक निहार रहा है। मुझे लगा कि इस बच्चे से दोस्ती करनी चाहिए। मेरे प्रति उसका बड़ा आकर्षण था। उसके प्रति भी मुझे आकर्षण हुआ। ऐसे में ही तो दोस्ती होती है न। तो मैंने एक दिन उस बच्चे को पास बुलाया। मगर क्यों वह मेरे पास आएगा? वह तो भाग गया। फिर मैं अपने काम में लगा तो देखता हूं कि महाशय जी किवाड़ के पास हाजिर हैं। फिर वही टकटकी। फिर बुलाया तो फिर भाग गए। मैंने विचार किया कि सीधी अंगुली से यह घी निकलने वाला है नहीं। बस, मैंने क्या किया कि नींद का बहाना बनाकर लेट गया। थोड़ी ही देर में खर्राटे भर रहा हूं, समझिए। और कनखियों से देख भी रहा हूं कि महाशय जी किवाड़ के पास खड़े हैं। जब उन्हें पूरा-पूरा यकीन हो गया कि मैं सो चुका हूं, धीरे-धीरे वह मेरी ओर बढ़े। मैं तो दम साधे उनके स्वागत के लिए तत्पर पड़ा हूं। सो हल्के पांव से महाशय जी मेरे पास आये और मेरी दाढ़ी को छूआ। मैंने देह को और ढ़ीला छोड़ दिया। वह आश्वस्त हुए कि वाकई मैं सोया हूं। तो, वह आए और बड़ी देर तक मेरी दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे, सहलाते रहे। फिर जरा सी आहट हुई कि निकल भागे।
और इस कहानी का निहितार्थ स्पष्ट करते हुए बाबा ने कहा था, -- 'बुजुर्गो को और चाहिए ही क्या ताराबाबू? नवागन्तुक पीढ़ी आपसे कुछ मनोरंजन पाए, कुछ शिक्षण पाए, कुछ प्रेरण पाए -- यही आपके जीवन की सार्थकता है!`
इस कहानी से भी पहले, आज से कोई उन्नीस-बीस साल पहले जब बाबा से मेरी पहली मुलाकात हुई थी, मैं एक दलित-संतापित देहाती-भुच्च लड़का था, और उन्होंने बहुत आत्मीयता से मेरा स्वागत किया था, बहुत स्नेहपूर्वक मुझसे बातें करने के लिए समय निकाला था, मैं उनकी विराटता देखकर भावुक-विगलित हो गया था। उनसे मैंने कहा था, 'बाबा, आपने मुझे इतना...! मेरा सौभाग्य है!`
और उस दिन, मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए उन्होंने कहा था, ''यह सिर्फ आप का सौभाग्य कैसे हो सकता है? सौभाग्य तो हमेशा फिफ्टी - फिफ्टी होता है।``
और, पिछले नवम्बर १९९८ में बाबा चले गए।
उनके देहान्त के तुरंत बाद ६ नवबर ९८ को जीवकान्त ने एक पत्र मुझे लिखा था, उसमें उन्होंने बहुत भावपूर्ण होकर बाबा का स्मरण किया था। बाबा के महत्व को बताते हुए जीवकान्त ने लिखा था कि वह तो निरंजन थे और उन्होंने एक संपूर्ण और लक्ष्यपूर्ण जीवन जीया। शब्दों को अर्थ तो उन्होंने प्रदान किया ही; शब्दों ने उनसे मह>ाम शक्ति भी प्राप्त की। और भी कितनी-कितनी बातें उन्होंने लिखी थीं मगर, मेरे अन्तरतम को छू लेने वाली जो बात उन्होंने लिखी थी, वह यह थी : 'हमलोग उनके स्नेहभाजन थे, यह बोध कृतार्थ करता है` मैं तो फट पड़ा था इस वाक्य को पढ़ते-पढ़ते।
अपने इस वाक्य द्वारा जीवकान्त ने अनजाने ही उस हिरण्मय पात्र के सत्य का ढ़क्कन खोल दिया था जो मेरी अनुभूति में तो परम गहनता पूर्वक व्याप्त था, मगर जिसे मैं कोई शब्द दे सकने में बिल्कुल ही अक्षम था। जीवकान्त-जैसे विराट अनुभूति-संपन्न मित्र ही यह अभिव्यक्ति दे भी सकते थे। उन्होंने शब्द दिया था, 'कृतार्थ`। जो अपना उद्देश्य सिद्ध कर सका, उसे कहा जाएगा - 'कृतार्थ`। जो अपनी अपंगताओं की भरपाई कर सका, उसे कहा जाएगा -- 'कृतार्थ`। मैं उनका स्नेह भाजन था, यह मेरी कृतार्थता है। सिर्फ स्नेहभाजन होना ही संपूर्ण कृतार्थता है।
साहित्य की तो बात ही छोड़िए, एक उद्देश्यमूलक जीवन का ककहरा भी मैंने बाबा से ही सीखा। उनके साथ बीता मेरा एक-एक पल, मेरे प्रति संबोधित उनका एक-एक शब्द अत्यंत सूक्ष्म रूप में कहीं मेरे संस्कार में शामिल हैं, जैसे शरीर के अंग-प्रत्यंग में रक्त-कण।
मैं बड़ी अच्छी तरह जानता हूं कि जो भी कोई बाबा के स्नेहभाजन हुए ऐसे लोगों की संख्या इस देश में दर्जन या कि सैकड़े में नहीं गिनी जा सकती। ऐसे लोगों की संख्या निश्चित ही हजार अथवा लाख में होगी। ऐसे लाखों लोगों में से ही कोई एक मैं भी हूं। मेरा देखा हुआ है कि कभी भी कहीं भी आते-जाते बाबा से एक बार भेंट हो जाना भी उनका स्नेहभाजन बन जाने के लिए पर्याप्त होता था। मेरा यह अनुभूत सत्य है कि जहां कहीं भी बाबा जाते, सूक्ष्म तरंग बनकर उनकी आत्मीयता समूचे परिवेश को आप्तजन-कोटि में ले आती थी। ऐसी स्थिति में, कौन होगा जो अपने को कृतार्थ न मानेगा?
मेरी कृतार्थता मगर जरा दूसरे प्रकार की है। थोड़े अलग किस्म की! और इसीलिए आगे जो कथा मैं लिखने जा रहा हूं, लिखने क्या जा रहा हूं, लिखने की चेष्टा भर कर रहा हूं, यह बाबा की कथा नहीं है, मेरी अपनी ही कथा है। मेरी अपनी मुक्ति-कथा।
यहीं आकर मगर मेरा संकट शुरू होता है। मेरी मुक्ति-कथा में बाबा आकर शामिल हो जाते हैं और उनपर लिखना मेरे लिए बड़ा कठिन हो जाता है। जाने कितनी बार मैंने चेष्टा की है, मगर हर बार असफल हुआ हूं। हर बार यह लगता रहा है कि उनके साथ जिये जीवन को केवल जीया जाना चाहिए अपने अन्तरंग में, अपनी अंतर्लय में। हमेशा उसकी अनुगूंज भीतर की तरफ पसरने देना चाहिए, बाहर की तरफ उसके निकालने से परहेज करना चाहिए। बाबा के साथ बिताये क्षण अपने जीवन में अभिव्यंजित करने के लिए हैं, साहित्य लिखने के लिए नहीं, अभी तक यही लगता रहा है। यह भी एक परीक्षा ही है मेरी, जब मित्रों के अनुरोध-विरोध पर उन अनुगुंजीयमान तरंगों को मैं शब्दों में अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रहा हूं।
बाबा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विराटता क्या थी, समझेंगे आप? आप अगर उनके निकट कभी जाते तो वह बड़ी जादूगरी से आपको घोर धन्यता-बोध से भर देते। आप अपने को धन्य-धन्य अनुभव करते। क्यों? इस वजह से नहीं कि नागार्जुन के साथ आप बैठे। सिर्फ सिर्फ इस वजह से कि धन्य तो आप हैं ही। सारी धन्यता आपके ही भीतर है। विराटता आपके ही भीतर है। अनन्त गुणों के आप स्वामी हैं। अनन्त हुनर आप में व्याप्त हैं। अनन्त संभावनाओं से लैश आप किसी भी तरह समुद्र से कम नहीं हैं।धन्य-धन्य आप हैं, मगर यह बोध आपको नहीं है। वह बहुत अनुभवी मित्र की तरह आपको आपकी ही धन्यता से परिचित कराते। तब वह आपको कुछ रास्ते बताते, कुछ आइडिया देते, थोड़ी योजनाएं बनाते, जिनमें आपकी और उनकी बराबर-बराबर की साझेदारी होती। कौन होगा जो धन्यता से नहीं भर जाएगा? हां! अगर आप अपने को परम ज्ञानी मानते हों, किसी मठ के महंत हों, किसी दल के सिपाही हों, किसी आग्रह के झंझारबरदार हों तो आपके लिए कोई क्या कर सकता है?
वह दिन याद आता है! परम अनुभवहीन, परम संतापित था मैं। उस लड़के की आप कल्पना कीजिए जो ब्राह्मणों के गांव में दीन-हीन-दलित उजड़े-उपेक्षित परिवार में जन्मा है, खानदान में किसी ने पढ़ा लिखा नहीं। जिसके हाथों के लिए समाज के पास एक मात्र पारंपरिक योजना है -- हल जोतना। मेरे गांव का समाज बहुत गतिहत समाज था। वहां के लोग अपने उज्ज्वल इतिहास के नशे में चूर थे। ढ़ंग से मेरे पढ़ने लिखने-तक को लोग ''बाभनक गांव में राड़ पंजियार`` की शंकाशीलता से देखते थे। कदम-कदम पर अपमान था, संघर्ष था। उन्हीं दिनों कविता लिखने की ओर मेरी प्रेरणा हुई थी, 'मिथिला मिहिर` में कविताएं छपने लगी थीं। कविता-कहानी छपने से मेरा अपमान और मेरा संघर्ष थोड़ा बढ़ ही गया था। परिस्थिति ऐसी थी जिसे कुल मिलाकर 'आगे नाथ न पीछे साथ` कहा जा सकता है। ठीक यही दिन थे जब बाबा से मेरी पहली मुलाकात हुई थी, अस्सी अथवा इक्यासी इस्वी की बात है। विद्यापति पर्व का समय था। पटना में मेरे ग्रामीण डा. फुलेश्वर मिश्र मैथिली के प्रोफेसर थे। चेतना समिति की गतिविधियों मेंे वह भी सक्रिय थे। मेरी कविताई से प्राय: उनको खुशी होती होगी, सो उन्होंने चेतना समिति का एक कार्ड मुझे डाक से भेज दिया था। आमंत्रण कविता पढ़ने के लिए नहीं बल्कि कार्यक्रम देखने के लिए था। मैं मगर इससे बडा ही उत्साहित, बड़ा ही प्रसन्न हुआ था और जैसे-तैसे रुपये-पैसे की व्यवस्था करके पटना आ गया था।
पटना की यह मेरी पहली यात्रा थी। चिल्ड्रेन्स पार्क में विद्यापति-पर्व मनाया जा रहा था। बहुत से लेखकों को मैंने वहां देखा। वे सब मुझे बड़े विराट और विस्मयलोक के प्राणियों की तरह लगे। राजमोहन झा को मैंने वहीं पहली बार देखा था। बड़े प्यार से वह मुझसे मिले, मैं उनकी महानता के प्रति नतशिर हुआ था। वहीं मोहन भारद्वाज को भी देखा था। बहुत भव्य, और आन-बान-शान से परिनिष्ठित, उनको देखकर मुझे भय हुआ था। राजमोहन जी ने सुकान्त जी से परिचय कराया था।कवि-रुप में उन्हें जानता था लेकिन मैं बहुत आश्चर्य और हर्ष से भर गया कि वे यात्री जी के सुपुत्र हैं। मेरे लिए यह बहुत ही बड़ी बात थी। सांझ का वक्त था। बातचीत से पता लगा कि बाबा भी अभी पटना में हीं हैं। मैं सुकान्त जी से प्रार्थना करने लगा था (मुहावरे में नहीं, सच में) कि बाबा से भेंट करा दीजिए। वह प्रसन्नतापूर्वक मेरा आग्रह मान गए थे। वहां से सब लोग बन्दर बगीचा (उषा किरण खान के घर) आये थे। वहां सारे लेखक रुक गए थे और मैं सुकान्त जी के साथ बाबा से मिलने विदा हो गया था। वह क्षण अद्भुत था बंधु! कभी लगता कि दुनिया के महानतम व्यक्ति के दर्शन को जा रहा हूं, तो कभी लगता कि सीमा पर लड़ाई में शामिल होने विदा हुआ हूं। बाबा कॉफी हाउस में थे। वह दृश्य वैसे का वैसा याद है। विशाल हॉल। चारांे ओर बैठे हुए लोग। बात-बहस चारों ओर जारी। पछबारी किनारे के प्राय: आखिरी सेट पर बाबा बैठे थे। उनके साथ एक सज्जन कोई और थे। वह सज्जन कौन थे, अब याद नहीं आता।
सुकान्त जी ने मुझे बाबा के पास पहुंचा दिया था। मेरा परिचय देते हुए वह कुल दो वाक्य बोले थे, 'ये तारानंद वियोगी हैं। महिषी घर है।` मैं भयंकर देहाती-भुच्च लड़का था। मेरे लिए यह परम कृतकृत्यता की स्थिति थी। बाबा ने मुझे बैठने के लिए कहा था। उनसे सटी हुई कुर्सी पर मैं बैठ गया था। सुकान्त जी वापस चले गए थे।
सबसे पहले बाबा ने मेरा हाल-चाल पूछा। कुछ इस तरह की शैली थी उनकी जैसे मैं उनका खास आदमी होऊं और बहुत दिन बाद उनसे मुलाकात की हो। यह शैली सिर्फ उनकी बातचीत की ही हो, ऐसा नहीं था। उन्होंने तुरंत बैरे को बुलाया था। हाथ का इशारा देकर उससे कहा था, 'इनका स्वागत-सत्कार कीजिए।` बैरे को निश्चय ही स्वागत-सत्कार का अर्थ पता होगा। वह डोसा ले आया था। मैं थोड़ा लज्जालु, थोड़ा हीनभावना-ग्रस्त लड़का! जीवन में पहली बार इस सत्कार से सामना हुआ था -- इस अप्रत्याशित स्वागत से मैं अप्रतिभ-सा हो गया था। कुछ समझ में नहीं आया, तो मैंने बाबा से कह दिया, 'और आप? आप भी लीजिए न !` बाबा इस पर क्या बोलते! निश्चय ही वे मुस्करा दिए होंगे। जैसे बलचनमा की झेंप पर मुस्कराए हों। उन्होंने कहा था 'मैं ले चुका हूं आप खाइए।`
सामने जो एक बंधु बैठे थे अब उनसे बाबा मेरा परिचय कराने लगे। उसका सारांश था कि ये महिषी के हैं। महिषी बहुत विशाल गांव! महिषी में मैं था तो ऐसा हुआ वैसा हुआ। राजकमल थे वहीं के। महिषी में उग्रतारा, महिषी में इ>ाा-इ>ाा बड़ा मखाना। और सबका सारांश यह कि ये महिषी के हैं इसलिए विशिष्ट हैं मेरे लिए, और इसीलिए आपके लिए भी।
अपने अनुभवहीन भुच्चपने के उस क्षणांश में मुझे ज्ञान हुआ था कि किसी व्यक्ति का परिचय मात्र उसका निज का ही परिचय नहीं होता। जिस धरती पर वह रहता है, जिस इतिहास से वह बावस्ता हुआ है, जिस वनस्पति, जिस मौसम, जिस जीवजन्तु, पशु-पक्षी, माटी-पानी के बीच वह जीता है, उन सबको जोड़ने के बाद ही किसी व्यक्ति का पूर्ण परिचय बन सकता है।
बाबा ने मुझसे अपनी भौजी (महिषीवाली) का हाल-चाल पूछा था। उन्हें नहीं पता था कि उनका देहान्त तो दो साल पहले ही हो गया है। बाबा ने अपने बाल सखा घूरन झा के बारे में पूछा था। तारा स्थान के बड़े वटवृक्ष का हाल-चाल। गांव का मौसम, खेत-पथार, अकाल-बाढ़। तब वह कहने लगे कि आपके गांव के पुस्तकालय को मैंने एक हजार की किताब देने का वादा किया था सो आप को दे दूंगा, आप पहुंचा दीजिएगा। बाबा यह सुनकर बहुत दु:खी हुए कि पुस्तकालय अब नहीं रहा।
बाबा ने हठात् मुझसे पूछ दिया 'अच्छा, आप के पिता का नाम क्या है?`
मैने परम संकोचपूर्वक, मानो जबरन उन्हें जवाब दिया -- 'जी,बद्री महतो।`
सुनकर बाबा कुछ देर तक चुप रहे। फिर पूछा -- 'और आपके बाबा का नाम।` मैंने कहा -- 'खोनाई महतो। वह मरर कहाते थे। खोनाई मरर।`
बाबा चुप हो गए। गुम! अतीत में चले गए जैसे। याद करने लगे। पुराने बीते दिनों के चेहरे और नाम उनके चारों ओर उमड़ने-घुमड़ने लगे हों जैसे। मगर नहीं। यह तो मेरा आज का विश्लेषण है। उस दिन जब बाबा इस तरह गुमसुम हो गए थे तो मैं बहुत डर गया था। उस कालखंड का यह मेरा यह दैनन्दिन अनुभव था। गांव-पड़ोस के बुद्धिधरी लोग आत्मीयता दिखाते, परिचय पूछते, पिता का नाम पूछते और उन्हें जब पता चलता कि मैं शूद्र हूं, उनका समूचा व्यवहार हीं बदल जाता। यही कारण था कि मैंने अपना नाम ऐसा रखा था जिससे जाति का पता नहीं चलता था। अपना नाम 'तारानंद वियोगी` मैंने अपने कैशोर्य के उस कालखंड में रखा था जब ठीक-ठीक यह भी पता नहीं था कि 'वियोगी` शब्द का अर्थ क्या होता है।
बहुत देर तक बाबा याद करते रहे थे। और तब जैसे थोड़ा मलिन थोड़ा उदास होते हुए मुझसे कहा था -- 'लगता है उनसे मेरा परिचय नहीं था!`
ओह! झनझना गया था मेरा अंग-प्रत्यंग उस क्षण। अभी भी याद करता हूं तो रोमांच से भर उठता हूं। उस महान हस्ती को इस बात का अफसोस और पश्चा>ााप था कि मेरे पिता और पितामह से उनका परिचय नहीं था। जबकि मेरे पितामह का क्या परिचय? वह किसी के बंधुआ मजदूर रहे होंगे, किसी के चरवाहे। यह बात बाबा में मैंने बाद में भी देखी। १९८५-८६ के जमाने में जब मैं उनके अति निकट था, तब भी इस प्रकार का अफसोस उन्होंने जाने कितनी बार प्रकट किया था। इस कालखंड में जो एक कविता लिखी थी मुझपर (शीर्षक - कोचिंग इंस्टीच्यूट) वह कविता भी कुछ इसी प्रकार के अफसोस-भाव से शुरू हुई थी कि आप के पितामह से मेरा परिचय नहीं, पिता से मित्रता नहीं; मगर पूरा-पूरी आप अपने ही आदमी हैं, सुच्चा स्वजन। अस्तु।
बहुत ठीक-ठीक मुझे याद है कि बाबा ने मुझसे उस दिन एक बार भी नहीं पूछा था कि आप क्या सब लिखते हैं, जबकि यह बात उनको सुनाने के लिए मैं व्याकुल था। उन्होंने मुझसे पूछा था - क्या पढ़ते हैं आप?
संकोच करते हुए उनसे मैंने कहा था, 'शास्त्री में पढ़ता हूं!` जैसे पढ़ता नहीं होऊं, अपराध करता होऊं।
यह बात मैं इस जगह कह जाऊं कि शूद्र होकर मैं संस्कृत पढ़ता था, शुद्ध-शुद्ध उच्चारण करता था, दुर्गापाठ करता था, इन सारी बातों को लेकर मेरे गांव वाले मुझपर रंज रहते थे। मैं एक अपराध-बोध से भरा हुआ था। मगर उपाय क्या था! संस्कृत पढ़ने में ही मुझे सबसे ज्यादा आनंद आता था। और अपने घर-परिवार में कोई सलाह देने का योग्यताधारी तक नहीं था कि मुझे क्या पढ़ना चाहिए। मैं तो सर्वतंत्र-स्वतंत्र था!
सो, बाबा जैसे मेरी हिचक को लक्ष्य कर गए हों! वह पीठ ठोककर मुझे शाबासी देने लगे। तब कहने लगे कि संस्कृत का विद्वान किस-किस तरह से हुआ जा सकता है। कौन सा पथ श्रेयस्कर, कौन त्याज्य। किस-किस कवि को खास ध्यान देकर पढ़ना चाहिए। कालिदास को किस भाव-दशा में पढ़ने पर शाश्वत साहित्य के अंतर्लय में प्रवेश किया जा सकता है आदि-आदि।
प्राय: दो घंटे तक मुझमें ही उलझे बाबा ने अन्तत: मुझसे कहा था -- 'अब आप जाइए। मैं एक बार आपके गांव आऊंगा। चिट्ठी वगैरह लिखते रहिएगा। अपना पता दीजिए। पहले मैं ही आपको पत्र दूंगा।` आदि-आदि। मैंने अपना पता उनको दिया। उठकर खड़ा हुआ। पांव छूकर प्रणाम किया। उस क्षण में मैं बहुत भावुक हो गया था। आज जो कुछ मुझे मिला था वह एक अद्भुत और विस्मयकारी अनुभव था, अविश्वसनीयता की हद तक विस्मयजनक। यह तो उनकी प्रवृि>ा थी, उनका स्वभाव ही था, यह बात तो बाद में पता चली।
पांव छूकर खड़ा हुआ तो हाथ जुड़े के जुड़े रह गए मेरे। अपने बचपन का स्वभाव याद करता हूं, निश्चय ही उस क्षण मैं रोने-रोने को हो आया होऊंगा। हाथ जोड़े परम कृतज्ञतापूर्वक, परम धन्यवाद-भाव से, परम समर्पण-भाव से उनसे मैंने कहा था, 'बाबा, आपने मुझे इतना...मेरा सौभाग्य है।
ठीक-ठीक याद है। इसी 'सौभाग्य` शब्द का प्रयोग मैंने किया था।
मेरी भावुकता देखकर बाबा भी भावुक हो गए थे क्या? वह उठकर खड़े हो गए। मेरी पीठ पर हाथ रखा था और एक वाक्य कहा था - वही वह एक वाक्य है, जिसने मेरे जीवन को बदल दिया। मेरे चिंतन को, मेरे लक्ष्य को, मेरे प्राथमिकता-निर्धारण को, सब कुछ को बदल दिया। वह जो अभिशाप था मेरा -- हीनता और अपराध-बोध -- उस दिन के बाद अन्त को उन्मुख हुआ। मेरी पीठ पर हाथ रखकर बाबा ने कुल एक वाक्य कहा था, 'सौभाग्य तो फिफ्टी-फिफ्टी होता है। आधा आपका तो आधा मेरा।` और, मेरी पीठ थपथपा दी थी।
मैथिली से अनुवाद: अविनाश, केदार कानन